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यह धूप सुगन्धित द्रव्यमयी, नभमंडल को महकाती है। पर जीवन-अघ की ज्वाला में, ईधन बनकर जल जाती है।। प्रभुवर इसमें वह तेज भरो, जो अघ को ईधन कर डाले।
हे वीर ! विजेता कर्मों के, हे मुक्ति-रमा वरने वाले।। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
यों तो ऋतुपति ऋतु-फल से, उपवन को भर जाता है। पर अल्प-अवधि का ही झोंका, उनको निष्फल कर जाता है। दो सरस-भक्ति का फल प्रभुवर, जीवन-तरु तभी सफल होगा।
सहजानंद-सुख से भरा हुआ, इस जीवन का प्रतिफल होगा। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा॥
पथ की प्रत्येक विषमता को, मैं समता से स्वीकार करूं। जीवन-विकास के प्रिय-पथ की, बाधाओं का परिहार करूँ।।
मैं अष्ट-कर्म-आवरणों का, प्रभुवर आतंक हटाने को।
वसु-द्रव्य संजोकर लाया हूँ, चरणों में नाथ चढ़ाने को। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक-अर्ध्यावली वामादेवी के गर्भ में, आये दीनानाथ। चिर-सनाथ जगती हुई, सजग-समोद-सनाथ।। अज्ञानमय इस लोक में, आलोक-सा छाने लगा। होकर मुहित सुरपति नगर में, रत्न बरसाने लगा।। गर्भस्थ बालक की प्रभा, प्रतिभा प्रकट होने लगी।
नभ से निशा की कालिमा, अभिनव-उषा धोने लगी। ॐ ह्रीं वैशाखकृष्ण-द्वितीयायांगर्भमंगल-मंडिताय श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥
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