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द्वार-द्वार पर सज उठे, तोरण वंदनवार। काशी नगरी में हुआ, पाश्व-प्रभु अवतार। प्राची दिशा के अंग में, नूतन-दिवाकर आ गया। भविजन-जलज विकसित हुए, जग में उजाला छा गया।।
भगवान् के अभिषेक को, जल क्षीरसागर ने दिया।
इन्द्रादि ने है मेरु पर, अभिषेक जिनवर का किया। ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥
निरख अथिर-संसार को, गृह-कुटुम्ब सब त्याग।
वन में जा दीक्षा धरी, धारण किया विराग।। निज-आत्मसुख के स्रोत में, तन्मय प्रभु रहने लगे।
उपसर्ग और परीषहों को, शांति से सहने लगे। प्रभु की विहार वनस्थली, तप से पुनीता हो गई।
कपटी कमठ-शठ की कुटिलता, भी विनीता हो गई।। ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
आत्मज्योति से हट गये, तम के पटल महान्। प्रकट प्रभाकर-सा हुआ, निर्मल केवलज्ञान।। देवेन्द्र द्वारा विश्वहित, सम-अवसरण निर्मित हुआ। समभाव से सबको शरण का, पंथ निर्देशित हुआ। था शांति का वातावरण, उसमें न विकृत विकल्प थे।
मानों सभी तब आत्महित के, हेतु कृत-संकल्प थे। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिने केवलज्ञान-प्राप्ताय श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥
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