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मन्दारु मेरु सुपारिजाती, सुमन वर्ण सुहावने। चंचरीक ध्यावै पवन परसै, चक्षुकू रलियावने।। सो कामवाण विध्वंस कारण, कनक भाजन लेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
सुरभि घृत पकवान सुन्दर, सद्य विविध बनाय ही। दीप्ति रस धरि स्वर्ण भाजन, लखे मन ललचाय ही।।
सो क्षुधा भंजन रसन रंजन, चारु चरु चखुप्रेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
त्रैलोक के उतपाद व्यय ध्रुव, समै एक लखाय ही। तम मोह पटल बिलाय ज्यों, घन पवननै नसि जाय ही।।
सो ज्ञान कारण दीप मणिमय, तेज भास्कर लेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
अगर संग हुतास धारै, सुरभितैं मधु धाव ही। व्रत धूम्र लखि दिग्पाल चिन्तै, नील क्षितधर आव ही।। सो अष्ट कर्म विध्वंस कारण, मलय चन्दन खेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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