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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (जटवाड़ा) (रचयिता - आचार्य देवनन्दि मुनि)
स्थापना जटवाड़ा है अतिशय-क्षेत्र, पार्श्वप्रभु का धाम। मन-वच-तन से पूजा करलो, पूरे होंगे काम।।
भक्त आपके चलते आते, पूजा-पाठ करे।।
मन-वांछित फल पाते तुमसे, मुक्ति-सौख्य वरें।। ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अनादि काल के ताप-त्रय को कैसे नाश करूँ। जल अर्पण कर चरण-कमल में सारे पाप हरूँ।। ___ संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी।।
अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी।।1॥ ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
देह-ताप से मनस्ताप है अति दुष्कर भाई। चंदन-चर्चत तव चरणों में कर्म नाश होजाई।।
संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी।
अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी।। 2॥ ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षय तंदुल अक्षय-पद के कारण बन जाते। अक्षय-रिद्धि सिद्धि पाकर सब आत्मसिद्धि पाते।।
संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी।
अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी।। 3।। ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
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