________________
शास्त्र-स्तवन स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं। उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं।18। हे गुरुवर! शाश्वत सुख-दर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है।
जग की नश्वरता का सच्चा दिग्दर्शन करने वाला है।19। जब जग विषयों में रच पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो। अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विष-कंटक बोता हो।20।
हो अर्थ निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हो। तब शान्त निराकुल मानस तुम, तत्वों का चिंतन करते हो।21।
करते तप शैल नदी तट पर, तरु तल वर्षा की झडियों में समता रस पान किया करते, सुख दुख दोनों की घड़ियों में।22।
अन्तर ज्वाला हरती वाणी, मानों झड़ी हों फुलझडियां। भव बन्धन तड़ तड़ टूट पड़ें, खिल जावें अन्तर की कलियां।23। __ तुम सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दीं जग की निधियां। दिन रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियां। 24
हे निर्मल देव! तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञान दीप आगम! प्रणाम। हे शान्ति त्याग के मूर्तिमान, शिव-पंथ-पंथी गुरुवर! प्रणाम।। ऊँ ही श्रीदेव शास्त्र गुरुभ्यः पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥
694