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निज में पर से अन्यत्व लिए, निज सम रस पीने वाला हूँ।6।
जिसके श्रृंगारों में मेरा, यह मंहगा जीवन घुल जाता। अत्यन्त अशुचि जड़ काय से, इस चेतन का कैसा नाता।7।
दिन रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता। मानस वाणी और काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता।8। शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्थल।
शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अन्तर्बल।9। फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें। सर्वांग निजातम प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें।10। हम छोड चलें यह लोक तभी, लोकांत वरानें क्षण में जा। निज लोक हमारा वासा हो, फिर भव बन्धन से हमको क्या।11।
जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो! दुर्नयतम सत्वर टल जावे। बस ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊं, मद-मत्सर मोह-विनाश जावे।12।
चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी।13।
देव-स्तवन चरणों में आया हूँ प्रभुवर, शीतलता मुझको मिल जावे। मुरझाई ज्ञान लता मेरी, निज अन्तर्बल से खिल जावे।14।
सोच करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला। परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला।15।
तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा। अब तक न समझ ही पाया प्रभु! सच्चे सुख की भी परिभाषा।16।
तुम तो अविकारी हो प्रभुवर! जग में रहते जग से न्यारे। अतएव झुके तव चरणों में, जग के माणिक मोती सारे।171
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