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जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है। आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है। मैं शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्ति रमा सहचरि मेरी, यह मोह तड़क कर टूट पड़े प्रभु! सार्थक फल पूजा तेरी।। ॐ ही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
क्षणभर निज रस को पी चेतन, मिथ्या मल को धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये निज आनन्द अमृत पीता है। अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है ।
दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अर्हंत अवस्था है।। यह अघ्य समर्पण करके प्रभु! निज गुण का अध्य बनाऊंगा। और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अर्हत अवस्था पाऊंगा।। ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।1।
जयमाला
बारह भावना चिन्तन
भववन में जी भर घूम चुका, कण कण को जी भर भर देखा। मृग-सम मृग तृष्णा के पीछे, मुझको न मिल सुख की रेखा । 1 । झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशायें। तन-जीवन-यौवन अस्थिर हैं, क्षण-भंगुर पल में मुरझायें।2। सम्राट महाबली सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या । अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या | 3 | संसार महा दुःख सागर के, प्रभु दुःखमय सुख आभासों में। मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कंचन - कामिनि - प्रासादों में।4। मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सब ही आते। तन धन को साथी समझा था, पर वे भी छोड़ चले जाते। 5 ।
मेरे न हुए ये मैं इनसे, अति भिन्न अखण्ड निराला हूँ।
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