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यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निज अन्तर का प्रभु भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं। चिंतन कुछ, फिर सम्भाषण कुछ क्रिया छ की कुछ होती है। स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ जो, अन्तर का कालुष धोती है। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः कामबाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु ! भूख न मेरी शांत हुई । तृष्णा की खाई खूब भरो, पर रिक्त रही वह रिक्त रही।
युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ।
पंचेन्द्रिय मन के षट्-रस तज, अनुपम रस पीने आया हूँ।
ऊँ ही श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः क्षुधाराग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मेरे चैतन्य सदन में प्रभु! चिर व्याप्त भयंकर अंधियारा। श्रुत-दीप बुझा हे करुणानिधि ! बीती नहिं कष्टों की कारा ।
अतएव प्रभो! यह ज्ञान-प्रतीक, समर्पित करने आया हूँ। तेरी अन्तर लौ से निज अन्तर दीप जलाने आया हूँ।।
ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
जड़
कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी । मैं राग-द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ के ।
यों भाव करम या भाव मरण, युग युग से करता आया हूँ। निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर गंध जलाने आया हूँ।।
ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
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