________________
श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजा (श्री युगल जी) केवल-रवि-किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर।
जिस श्री जिनवाणी में होता, तत्वों का सुन्दरतम दर्शन। सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरत जो बढ़ते हैं मुनिगण।
उन देवपरम-आगम-गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदन।। ॐ ह्री श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौष्ट्। (आह्वाननम्)
ॐ ह्री श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्री श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्नि धिकरणम्)
इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यमयी कंचन काया। यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया।।
मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर ममता में अटकाया हूँ।
अब निर्मल सम्यक् नीर लिये, मिथ्या मत धोने आया हूँ।। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः जन्जमरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
जड़ चेतन की सब परिणति प्रभु! अपने-अपने में होती है। अनुकूल कहैं प्रतिकूल कहैं, यह झूठी मन की वृत्ति है।। प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है।
संतप्त हृदय प्रभु! चन्दन सम, शीतलता पाने आया है।। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
उज्ज्वल हूँ कुन्दन धवल हूँ प्रभु! पर से न लगा हूँ किंचित भी। फिर भी अनुकूल लगें उनपर, करता अभिमान निरन्तर ही।
जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, नश्वर वैभव को अपनाया। निज शाश्वत अक्षय-निधि पाने अब दास चरण-रज में आया।। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
690