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रवि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमो बहु प्रीति ल्याय ॥४॥
गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रत्नत्रयनिधि अगाध । संसार देह वैराग्य धार, निरवांछि तपैं शिव-पद निहार ॥५ ॥ गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भव तारनतरन जिहाज ईश ।
गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपो मन वचन काय ॥६॥
सोरठा
शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै ।
द्यानत सरधावान, अजर - अमरपद भोगवै ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घपदप्राप्तये महाअर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
दो
श्रीजिन के परसाद तैं सुखी रहैं सब जीव । यातैं मन वचन तैं, सेवो भव्य सदीव ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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