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लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के कार I मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं ॥ सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ जे प्रधान फलफल विषै, पंचकरण रस लीन । जासों पूजों परमपद देवशास्त्र गुरु तीन | ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ । वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ ॥ इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ वसुविधि अर्घ संजोय कै, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन | ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार ।
भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥
पद्धरि छन्द
चउकर्म कि त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि । जे परम सुगुण हैं अनंतधीर, कहवत के छयालिस गुणगंभीर ॥ १ ॥ शुभ समवसरण शोभा अपार, शत - इन्द्र नमत कर सीस धार । देवाधिदेव अरहन्त देव, वन्दों मन वच तन कर सु-सेव ॥ २ ॥ जिनकी धुनि ह्वै ओंकाररूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप । दशअष्ट महाभाषा समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत ॥३ ॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सुअंग ।
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