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अति सबल मद- कंदर्प जाको, क्षुधा- उरग अमान हैं। दुस्सह भयानक तासु नाशन को सुगरुड समान हैं। उत्तम छहों रस युक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पयूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जे त्रिजग- उद्यम नाश कीने, मोह- तिमिर महाबली। तिहि कर्मघाती ज्ञानदीप- प्रकाशजोति प्रभावली ॥ इह भॉति दीप प्रजाल कंचन, के सुभाजन में खचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ स्वपरप्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
जो कर्म- ईधन दहन अग्नि- समूह सम उद्धत लसै। वर धूप तासु सुगंधिताकरि, सकल परिमलता हँसै ॥ इह भाँति धूप चढ़ाय नित भव- ज्वलन माँहि नहीं पचूँ। अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥
अग्निमाँहिं परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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