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जे त्रिजग - उदर मँझार प्रानी, तपत अति दुद्धर खरे, तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे । तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन, सरस चन्दन घसि सचूँ, अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥
चंदन शीतलता करै तपत वस्तु परवीन ।
जासों पूजों परमपद, देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
यह भव- समुद्र अपार तारण, के निमित सुविधि ठई । अति दृढ़परम-पावन जथारथ, भक्ति वर नौका सही ॥ उज्ज्वल अखंडित सालि तंदुल, पुंज धरि त्रयगुण जचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ तंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
जे विनयवंत सुभव्य- उर- अंबुज प्रकाशन भान हैं।
जे एक मुख चारित्र भाषत, त्रिजग माहिं प्रधान हैं। लहि कुन्द-कमलादिक पहुप, भव-भव कुवेदन सों बचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ विविधभाँति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
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