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कलपरुह सुपुष्पं, गुंजितं भौंर भारी। लखन वरन नाना, घ्रान नयना सुखारी।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
षट् रस परिपूर्णा, देश व्यञ्जन बनाये। अधिक सुरभि सी, भूख बिन सो सुहाये।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मणि के शुभ दीये, दोय हाथान लीये। बहु करत उदोतं, अन्धकारं विलीये।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
करम दहन अर्थं, ल्याय धूपं सुगन्धं। लखि गन्ध दुरेफा, देत दक्षिना सुछन्द।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।।
ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
फल ललित सुहाने, पक्व मीठे सुजाने। तजि सकल अजाने, दिव्य भावान आने।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।।
ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
जल चन्दन सुअक्षत, पुष्प नैवेद्य दीयो। वर धूप फलौघा, अय सौन्दर्य कीयो।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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