________________
कर्म कठोर गिरावन को निज, शक्ति-समान उपोषण कीजे। बारह भेद तपे तप सुन्दर, पाप जलांजलि काहे न दीजे।। भाव धरी तप घोर करी, नर जन्म सदा फल काहे न लीजे। 'ज्ञान' कहे तप जे नर भावत, ताके अनेकहिं पातक छीजे।। ॐ ह्रीं शक्तितस्तप भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।7।
साधुसमाधि करो नर भावक, पुण्य बड़ो उपजे अघ छीजे। साधु की संगति धर्मको कारण, भक्ति करे परमारथ सीजे।।
साधुसमाधि करे भव छूटत, कीर्ति-छटा त्रैलोक में गाजे। 'ज्ञान' कहे यह साधु बड़ो, गिरिश्रृंग गुफा बिच जाय विराजे।। ॐ ह्रीं साधुसमाधि भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।8।
कर्म के योग व्यथा उदये, मुनि पुंगव कुन्तस सुभेषज कीजे। पित्त-कफानिल साँस, भगन्दर, ताप को शूल महागद छीजे।। भोजन साथ बनाय के औषध, पथ्य कुपथ्य विचार के दीजे।
'ज्ञान' कहे निज ऐसी वैय्यावृत्य करे तस देव पतीजे।। ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
देव सदा अरिहन्त भजो जई, दोष अठारा किये अति दूरा। पाप पखाल भये अति निर्मल, कर्म कठोर किए चकचूरा।। दिव्य-अनन्त-चतुष्टय शोभित, घोर मिथ्यान्ध-निवारण सूरा। 'ज्ञान' कहे जिनराज आराधो, निरन्तर जे गुण-मन्दिर पूरा।। ॐ ह्रीं अर्हद्-भक्ति भावनायै नम: अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।10।
699