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शील सदा सुखकारक है, अतिचार-विवर्जित निर्मल कीजे।
दानव देव करें तसु सेव, विषानल भूत पिशाच पतीजे।। शील बड़ो जग में हथियार, जु शीलको उपमा काहे की दीजे।
'ज्ञान' कहे नहिं शील बराबर, तातें सदा दृढ़ शील धरीजे।। ॐ ह्रीं निरतिचार शीलव्रत भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
ज्ञान सदा जिनराज को भाषित, आलस छोड़ पढ़े जो पढ़ावे। द्वादश दोउ अनेकहुँ भेद, सुनाम मती श्रुति पंचम पावे।।
चारहुँ भेद निरन्तर भाषित, ज्ञान अभीक्षण शुद्ध कहावे। 'ज्ञान' कहे श्रुत भेद अनेक जु, लोकालोक हि प्रगट दिखावे।। ॐ ह्रीं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावनायै नम: अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।40
भ्रात न तात न पुत्र कलत्र न, संगम दर्जन ये सब खोटो। मन्दिर सुन्दर, काय सखा सबको, हमको इमि अंतर मेटो।।
भाउ के भाव धरी मन भेदन, नाहिं संवेग पदारथ छोटो। 'ज्ञान' कहे शिव-साधन को जैसो, साह को काम करे जु बणोटो।।
ॐ ह्रीं संवेग भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
पात्र चतुर्विध देख अनूपम, दान चतुर्विध भावसुं दीजे। शक्ति-समान अभ्यागत को, अति आदर से प्रणिपत्य करीजे।।
देवत जे नर दान सुपात्रहिं, तास अनेकहिं कारण सीझे। बोलत 'ज्ञान' देहि शुभ दान जु, भोग सुभूमि महासुख लीजे।। ॐ ह्रीं शक्ति तस्त्याग भावनायै नम: अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।6।
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