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देवत ही उपदेश अनेक सु, आप सदा परमारथ-धारी। देश विदेश विहार करें, दश धर्म धरे भव-पार उतारी।। ऐसे अचारज भाव धरी भज, सो शिव चाहत कर्म निवारी। 'ज्ञान' कहे गुरु-भक्ति करो नर, देखत ही मनमांहि विचारी।। ॐ ह्रीं आचार्य भक्ति भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।। ।।
आगम छन्द पुराण पढ़ावत, सहित तर्क वितर्क बखाने। काव्य कथा नव नाटक पूजन, ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाने।।
ऐसे बहुश्रुत साधु मुनीश्वर, जो मन में दोउ भाव न आने। बोलत 'ज्ञान' धरी मन सान जु, भाग्य विशेष ते ज्ञानहि साने।। ॐ हीं बहुश्रुतिभक्ति भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।12।
द्वादश अंग उपांग सदागम, ताकी निरंतर भक्ति करावे।
वेद अनूपम चार कहे तस, अर्थ भले मन मांहि ठरावे।। पढ़ बहुभाव लिखो निज अक्षर भक्ति करो बड़ि पूज रचावे।
'ज्ञान' कहे जिन आगम-भक्ति, रे सद्-बुद्ध बहुश्रुत पावे।। ॐ ह्रीं प्रवचनभक्ति भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।13।
भाव धरे समता सब जीवसु, स्तोत्र पढ़े मुख से मनहारी। कायोत्सर्ग करे मन प्रीतसु, वंदन देव-तणों भव तारी।। ध्यान धरी मद दूर करी, दोउ बेर करे पड़कम्मन भारी।
'ज्ञान' कहे मुनि सो धनवन्त जु, दर्शन ज्ञान चरित्र उघारी।। ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।140
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