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कंचन जड़ि त धूप को आयन, जामधि धूप जराऊँ। उठम धूम्रमिस करम जरों वसु, फेरि न जगमें जाऊँ।।
चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे । दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे॥ ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
वृन्दारक कुसुमाकर द्राक्षा, क्रमुक रसाल घनेरे। इन्हें आदि फल नानाविधि के, कंचन धार भरेरे।। चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे । दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
ले जलगंध अक्षत वर कुसुमा, चरु दीपक मणि केरा। धूप महाफल अरघ बनाऊँ, पदपूजन की बेरा ।
चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे । दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनघ्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
शिखरणी छन्द
कही पांचें आछी, असित पखकी चैत्र महिना। महाप्यारी रानी, भल सुलक्षना नाम कहिना ।। वसे रात्रि स्वामी, सुभग दिन जाके उदरमा । जजों के अध्य, मिलत जिहि सो धाम परमा ।। ओं ह्रीं चैत्रकृष्णपंचम्यां गर्भकल्याणकण्डिताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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