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वदि पञ्चदशि कहि चैत की, करुणा-निधान महान,
सम्मेद-पर्वत ते जगत गुरु, होत भये निर्वान। तहँ देव चतुरनिकाय विधिकरि, चरण पूजे सार, ___ मैं वहाँ पूजत अध्य लीन्हे, पद सरोज निहार।
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णामावस्यायां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला - त्रिभंगी छन्द जय जिन अनन्त वर गुण महन्त, वर परम शान्ति कर दुख न दरे।
निज कारज कारी जन हितकारी, अधम उधारी शर्म धरें। जय जय परमेश्वर कहत वचनफुर, रहत सदा सुर पग पकरे। प्रभु करहु निवेरा पातक-घेरा, मनरंग चेरा नमत खरे।
पद्धरि छन्द जय जय अनन्त भगवन्त सन्त, जग गावत पद-महिमा महन्त।
ते पावत जावत सिद्धराज, जाके मारग में दिवि-समाज।। प्रभु-मूरत भय-भंजन-विशेष, भविजन सुख पावत देखि देखि। रञ्जन भवि-नीरत-वन दिनेश, निरअञ्जन अञ्जन विनु विशेष।। घट आवत जाके तुम दयाल, सो घट घट की जानत त्रिकाल। भटकत नहिं जो संसार मांहि, नहिं अटकत कोई काज ताहि।। फटकत नहिं जाकी ओर मोह, पटकत सो चैपट मांझ दोह। लटकत निज जाकी कृत पताक, भटकत माया बेली झटाक।। सटकत लखि जाको रूप मान, वच ताके गटकत सिग जहान। छटकत चहुँ गिरदा सुजस जासु, खटकतनहिं दृग मधि छवि सुतासु।।
तुम धन्य धन्य किरपा निधान, जो कर जानि जग निज-समान। इह खूबी का पर कहिय जाय, जय जय जग-जीवन के सहाय।।
जय जय अपार पारा न वार, गुण कहि हार जिह्वा हजार। मथि डारो तुम वैरी मनोज, बलिहारी जैयत रोज-रोज।।
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