________________
उनको शरणो कौन, आपु नहीं थिर थाये।।2।। तुम निरभै तजि मोह, ध्यान शुकल प्रभु ध्यायो। उपज्यो केवल ज्ञान, लोकालोक लखायो।।3।।
समवशरण की भूति, दोष या लखि भागे। सुपन न तो ढिंग थाय, असुरन के संग लागे।।4।।
धरो जनम नहिं फेरि, मरण नहिं निद्रा नासी। रोग नाहि, नहिं शोक मोह की तोरी फांसी।।5।। विस्मय को नहिं लेश, धीर भय प्रकृति विदारी। जरा नांहि नहिं खेद, पसेव न चिन्ता टारी।।6।। मद नाहीं नहिं वैर, विषय नहीं रति नहीं कातें। प्यास हनी हनि भूख, अष्टदश दोष न यात।।7।
नमूं शीश धरि हाथ, ख्यात देवन के देवा। छयालिस गुण-भण्डार, करूँ प्रभु तेरी सेवा।।8।।
न| दिगम्बर रूप, नमूं लखि निश्चल-आसन। मुद्रा शान्ति निहार, नमूं नमिहूँ तुम शासन।।9।।
न| कृपानिधि तोहि, नमूं जगकरता थे ही। अशरण कू तुम शरण, हरो भव के दुख ये ही।।10।। ___ जामन, मरण, वियोग, सोग इत्यादि घनेरे। फेरि नआनू निकट, करो प्रभु ऐसी मेरे।।11। तुम लखि दीन दयाल, शरणि हम यातें आये। ऐसे देव निहारि, भागि- तुम प्रभु पाये।।12।।
रामचन्द्र कर जोरि, अरज करिहै जिन ऐसी। विपति यहै जग मांहि, सबै तुम जानत तैसी।।13।।
यातें कहनी नाहि, हरो जिन साहिब मेरे।
बिन-कारण जग-बन्धु, तुही अन-मतलब केरे।।14।। शरण-गहे की लाज, राखि जगपति जिन स्वामी। करुणा करि संसार, विमल जिन अन्तरयामी।।13।।
201