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धरै मोहिनी सत्तरं कोड़कोड़ी, सरित्पत्प्रमाणं थिति दीर्घ जोड़ी। अवधिज्ञान दृग्वेदनी अंतरायं, धरै तीस कोड़ाकोड़ी सिंधुकाय।।
तथा नामगोतं कुड़ाकोड़ि बीसं, समुद्रप्रमाणं धरै सत्तईसं। सु तैंतीस अब्धि धरे आयु अब्धि, कहे सर्व कर्मोतनी वृद्ध लब्धि।।
जघन्य प्रकारे धरै भेद ये ही, मुहूर्त वसू नामगोतं गने ही। तथा ज्ञान दृग्मोह प्रत्यूह आयं, सुअन्तर्मुहूर्तं धरै थित्ति गाय।।
तथा वेदनी बारहे ही मुहूर्त, धरै थित्ति ऐसे भन्यो न्याय जुत्तं। इन्हें आदि तत्त्वार्थ भाख्यो अशेषा, लह्यो फेरि निर्वाण माहीं प्रवेशा।।
अनन्तं महन्तं सुसन्तं सुतन्तं, अमन्दं अफन्दं अनन्दं अभन्तं। अलक्षं विलक्षं सुलक्षं सुदक्षं, अनक्षं अवक्षं अभक्षं अतक्ष।। अवर्णं सुवर्णं अमर्णं अकर्णं, अभर्णं अतर्णं अशर्णं सुशण। अनेकं सदेकं चिदेकं विवेकं, अखण्डं सुमण्डं प्रचण्डं सदेकं।।
सुपर्मं सुधर्मं सुशर्मं अकर्म, अनन्तं गुनाराम जैवन्त धर्म। नमैं दास वृंदावन शर्न आई, सबै दुःखतें मोहि लीजै छुड़ाई।।
तुम सुगुन अनन्ता, ध्यावत संता, भ्रमतम भंजन मार्तंडा। सतसत करचंडा भविकज मंडा, कुमति कुवलभन गन हंडा।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(छन्द-रोड़क) सुमतिचरन जो जज, भविक जन मनवकारई। तासु सकलदुखदंद फंद ततछिन छय जाई।।
पुत्रमित्र धनधान्य, शर्म अनुपम सो पावै। 'वृन्दावन' निर्वाण, लहे जो निहचै ध्यावै।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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