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सुकल-चैत-एकादश हाने, घाति सकल जे जुगपति जाने।
समवसरन-मँह कहि वृषसारं, जजहुँ अनंत-चतुष्टयधार।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
चैत-सुकल-ग्यारस निरवानं, गिरि-समेद त्रिभुवन मान।
गुन-अनंत निज निरमलधारी, जजौं देव सुधि लेहु हमारी।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला
(दोहा) सुमति तीन सौ छत्तीसों, सुमति-भेद दरसाय। सुमति देहु विनती करों, सुमति विलम्ब कराय।। दयाबेलि तहँ सुगुन-निधि, भविक मोद-गण-चंदासुमति-सतापति सुनतिकों, ध्यावों धरि आनंद। पंच-परावरतन-हरन, पंच-सुमति सित देन। पंच-लब्धिदातार के, गुन गाऊँ दिनरैन।।
(छन्द भुजंगप्रयात) पिता मेघराजा सबै सिद्ध काजा, जपै नाम जाकौ सबै दुःख भाजा। महासूर इक्ष्वाकु वंशी विराजै, गुण-ग्राम जाको सबै ठौर छाजै।। तिन्हों के महापुण्यसों आप जाये, तिहुँ लोक में जीव आनंद पाये। सुनासीर ताही धरी मेरु धायो, क्रिया जन्म की सर्व कीनी यथा यो।। बहुरि तात को सौंपि संगीत कीनों, नमें हाथ जोरें भलो भक्ति भीनों। बिताई दशै लाख ही पूर्व बालै, प्रजा लाख उन्तीस ही पूर्व पालै।।
कछु हेतु भावना बार भाये, तहां ब्रह्म लौकांत के देव आये। गये बोधि ताही समै इन्द्र आयो, धरे पालकी में सु उद्यान ल्यायो।। नमैं सिद्ध को केशलोंचे सबै ही, धर्यो ध्यान शुद्ध जु घाती हने ही। लह्यो केवलं औ समोसर्न साजं, गणाधीश जू एकसौ सोल राज।। खिरै शब्द तामैं छहों द्रव्य धारे, गुनौ पर्जय उत्पाद व्यय ध्रौव्य सारे। तथा कर्म आठों तनी थित्ति गाजं, मिलै जासु के नाश” मोच्छराज।।
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