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वदी चैथहि जानो, सुभग महिना फाल्गुन कहा। बड़ी संयोगम् शुभ, मुक्तिरमणी सो तिन लहा।।
करी पूजा भारी, शिखरपर निर्वाण पदकी। यहां मैं ले अध्य, जजन करिये पद्मपद की। ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां निर्वाणकल्याणकप्राप्ताय श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अथ जयमाल - छन्द दंडिका जय तन छवि छज्जै, रवि द्युति लज्जै, शरद समय शशि इव सुखदो। लखि भय सिग भज्जै भविगण गज्जै, अनन्त चतुष्टमय सुखतो।।
चउ घाती चूरे, गुण-गण पूरे, क्षपक श्रेणि चढि ज्ञान लहो। इन्द्रादिक ध्यावत शीश नवावत, सुयश फैलि तिहुँ लोक रही।।1।।
छन्द मुक्तदान नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु जिनेश, न राखत हो तुम लेश कलेश। रखावन को जनकी सब लाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।2।।
न शत्रु न मित्र समान समस्त, करे कर्मादिक शत्रु निरस्त। लियो शिव करिके आतमकाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।3।। छः द्रव्य पंचासति काय प्रशस्त, दिखावन सूर सदैव न अस्त। बतावन कौ सिग तत्त्व-समाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।4।। पदार्थ त्रिकाल जनावन दक्ष, मनावन को शुभ आनि प्रतक्षा भजावन संशय संकट गाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।5।। छः काय कही तिनने तुम रक्ष, बनाय दही दुखदा पन अक्ष। नशावन को तृष्णा अति खाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।6।। किये कृत पाप दूर कर अस्त, स्वरूप-म्हार भये तुम मस्त। सिंहासन पै अन्तरिक्ष विराज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।7।। सुशील कृपाण लिये निज हस्त, कियो पण सायक लस्त पलस्त लही विजगीषु कहो सुकहाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।8।।
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