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तुम निर्विकल्प चैतन्य रूप, शिव मन्दिर के अनुरागी हो।। द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय का, भौतिक बल तुम से हारा है। लब्धियाँ और उपयोग सहित, क्षय-क्षायिक दास तुम्हारा है।।
साताएँ तथा असाताएँ, इनमें न ममत्व तुम्हारा है। स्वयमेव वृक्ष की छाया से, पाता संसार सहारा है।। ममता से और विषमता से, किंचित न तुम्हारा नाता है। चरणों में आकर भक्त स्वयम्, मन की साता पा जाता है।। साकेतपुरी-पति ऋषभदेव, तुमको जो मन से ध्याते हैं। इन्द्रिय. कषाय पर जय पाकर. भव सागर से तिर जाते हैं।। घातिया कर्म की ज्वालाएँ, आत्मा की शान्ति जलाती हैं। शरणागत की यह विपदाएँ, स्वयमेव बिखरती जाती हैं।। तुम द्वन्द्व रहित निद्र्वन्द प्रभो, अनुराग तुम्हें न सुहाता है। चन्दन तरु पर आसक्त अनिल, मलयानिल बनता जाता है।। यह मेरी अन्तिम विनय प्रभो, करुणावतार स्वीकार करो। जित भाँति आप भव पार हुए, जिनराज हमें भी पार करो।
जिनवर की पूजा का प्रसाद, स्वयमेव महासुखदाता है। अपने निर्मल भावों का फल, जिन भक्त स्वयं पा जाता है।। मधुावन के फूलों की सुगन्ध, बिन बांटे जग को मिलती है। दिनकर की किरणों को छूकर, पंखुरी स्वयं खिल पड़ती है।। गुण ग्राहक को गुणवानों का, उपहार स्वयं मिल जाता है।
पुरवैया का पावन प्रसाद, गेहूं को स्वयं पकाता है।। दैदीप्य चन्द्रमा का आनन, चकवी को पास बुलाता है। इस तरह आपका दास प्रभो, शिव का निवास पा जाता है।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथाजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
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