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पंचकल्याणक छन्द काव्य चैत्र शुक्ल पडिवा वसे, गरभ माहिं जित मल्लिा पूजत शुद्ध अध्य ले, दरि होत सब शल्लि॥ ओं ह्रीं चैत्रशुक्लप्रतिपदयायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि एकादशी, जन्मलीन महाराजा
अध्य लिये पूजत तिन्हें, बढ़त पुण्य-समाज।। ओं ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि ग्यारसि दिना, केश सुलुञ्च करन्त। पूजत तिन पद अध्य सों, पातक सकल नशन्त।। ओं ह्रीं मगसिरशुक्लैकादश्ययां तपःकल्याणकप्राप्ताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा
करम मल्लि निरशल्लि करि, पौष दोज वदि मांहि। लहत नवल केवल लबधि, पूजो अध्य चढ़ांहि।
ओं ह्रीं पौषकृष्णद्वितीयायां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पाँचे फाल्गुन शुक्ल की, त्यागि समेद पहार। अष्टकर्म हनि सिध भये, जजों अध्य ले थार।। ओं ह्रीं फाल्गुनशुक्लपञ्चम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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