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मग्न प्रभु चेतन सागर में शान्ति जल से न्हाय रहे, मोह मैल को दूर हटाकर, भवाताप से रहित भये। तप्त हो रहा मोह ताप से सम्यक् रस में स्नान करूँ, समरस चन्दन से पूजू अरु तेरा पथ अनुसरण करूँ।
चेतन रस को घोलकर चरित सुगन्ध मिलाय,
भाव सहित पूजा करूँ, शीतलता प्रगटाय। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्ष अगोचर प्रभो आप, पर अक्षत से मैं पूजा करूं, अक्षांतरित ज्ञान को करके, अक्षय पद को प्राप्त करूं।
अन्तर्लक्षी ज्ञान के द्वारा, प्रभुवर का सम्मान करूं, पूनँ जिनवर परम भाव से, निज सुख का आस्वाद करूँ।
अक्षय सुख का स्वाद लूँ, इन्द्रिय मन के पार,
सिद्ध प्रभु सुख मगन ज्यों, तिष्ठे मोक्ष मँझार। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
निष्काम अतीन्द्रिय देव! अहो पूनँ मैं श्रद्धा सुमन चढ़ा, कृतकृत्य निष्काम हुआ, तब मुक्ति मार्ग में कदम बढ़ा। गुण अनंतमय पुष्प सुगन्धित, विकस रहे हैं आतम में,
कभी नहीं मुरझावे परमानन्द पाया शुद्धातम में। रत्नत्रय के पुष्प शुभ, खिले आत्म उद्यान,
सहज भाव से पूजते हर्षित हूँ भगवान। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
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