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इन्द्र सिंगार बनाय कल्याणक तप कर्यो, पाडल-तरुतल जाय जोग वन में धर्यो।5। मनपरजै भयो ज्ञान ततच्छिन ही जबै, षष्ठम पूरण ठानि असनहित जिन तबै।
पुर सिद्धारथ गये दान सुन्दर दयो, वरषे रतन अपार हरष अति ही भयो।6। वरष एक छदमस्थ विविध-विध तप करे, ध्यान शुकल असि थकी घाति-चउ जिन हरे। उपज्यो केवलज्ञान उभै सित माघ ही, करी धर्म की वृष्टि मिट्यौ भवदाघ ही।7।
विहरे आरज देश बोधि भविलोग ही, गये चम्पापुर मांहि निरोध्यो जोगही। हनि अघाति शिवथान गये जिनराय ही, भादव सित चउदशो सुरासुर ध्यान ही।8। मोक्षकल्याण-थान पूजि उतसव कौं, मंगल गान उचारि महा आनन्द धर्यो। रामचन्द्र कर जोरि नमैं करुणापती, मोकू भवतें तारि अरज सुनियो इती।9।
घत्ता छन्द चम्पापुर-थानं, पंच-कल्यानं सुर-नर-खग वन्दत सबही। हूँ पूजूं ध्याऊँ गुणगण गाऊँ, वासुपूज्य दे शिव अबही।।1।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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