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भौतिक वैभव की छाया में निज-द्रव्य भुलाया था अब तक। निज-पद विस्मृत कर पर-पद का ही राग बढ़ाया था अब तक।।
__ भावों के अक्षत लेकर मैं अक्षयपद पाने आया हूँ।।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।।3।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पों की कोमल मादकता में पड़कर भरमाया था अब तक। पीड़ा न काम की मिटी कभी निष्काम न बन पाया अब तक।।
भावों के पुष्प समर्पित कर मैं काम नशाने आया हूँ।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।।4।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य विविध खाकर भी तो यह भूख न मिट पाई अब तक। तृष्णा का उदर न भर पाया पर की महिमा गाई अब तक।।
भावों के चरु लेकर अब मैं तृष्णाग्नि बुझाने आया हूँ।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।। 5।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मिथ्या-भ्रम-अन्धकार छाया सन्मार्ग न मिल पाया अब तक। अज्ञान-अमावस के कारण निज ज्ञान न लख पाया अब तक।।
भावों का दीप जला अन्तर आलोक जगाने आया हूँ।।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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