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श्री कुंथुनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(अडिल्ल) जो परशंसा करें राग तासैं नाहींकरें विरोध न दुष्ट थकी दुख ना कहीं। शुद्धातम में लीन कुन्थ जिनकू न, आह्वानन विधि ठानि सबै अघकू बनूं।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
____ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) । ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
त्रिभंगी छन्द अति-आमय दुसतरतें तृट थवे, दुख पावै अति ही भारी। तिस नासन-काण पूजन आयो, तीरथ को जल भरि झारी।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा।
मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
भव-गाहत श्रमतें दाह भयो, मुझ, छिन सुख नाहीं का वरणा। घसि कुंकुम चन्दन दाह-निकन्दन, पूजन ल्यायो हरि-शरणा।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा।
मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय भव-आताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
इह संसार-अपार-उदधिकू, तारण भक्ति तुही नवका। सित तन्दुल ल्यावै पुंज बनावें, लहु पावै ते सुख शिव का।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा।
मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
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