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शुक्ल
पंचम दिवस, पायो अविचल थान।
सो अजितेश जिनेश मम सर्व कल्याण
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय चैत्रशुक्ला-पंचम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
जय जय जगवन्दन कर्मनिकन्दन भव भय भंजन सूर बड़े । पूजक पाता शिव सुख साता सुर नर तासु हजूर खड़े । छन्द-मोतियादाम
जय जगमें अजितेश्वर देव, सदा सिर नाय करें सुर सेव समौश्रृत मण्डप मध्य महेश, लसैं चतुरानन आप जिनेश । अनूपम आसन सिंह समान, सु ताप पदम् महा छवि जान । विराजित है निरधार अनूप, सुआसन पद्म तिहूं जग भूप ।।
अशोक महातरु शोक हरंत, सु चौसठ चामर देव दुरंत। करै सुर पुष्प सुवृष्टि महान, मनो असरीर गिरै, पग आन।। धरे सिर छ सु तीन अनूप, करें पद सेव सुरासुर भूप । महासुर दुन्दभिनाद करंत, सुने भवि जीव महा हरषंत ।। प्रभावन सों शशि सूर लजन्त, लखै जिहि को भव सात लखंत। मुखांबुज से धुनि दिव्य खिरंत, सुधासम जीवन को हितवंत । अनन्त सुख-बल वीरजवंत, सुदर्शन ज्ञान तनो नहिं अन्त। सभा दश दोय विषै भवि जीव, करै वृष अमृतपान अतीव ।।
तुही जग में जयवंत महंत, तुही सबको हितदायक संत। कहूँ अब तोहि पुकार पुकार, जिनेश करो भवसागर पार।। दोहा
असरन शरण सहाय तुम, भव भंजन भगवान। हाथ जोड़ विनीत करूँ, कीजे आप समान ।। ॐ ह्री श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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