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मार्गशीर्षे सुदीग्यारसीके दिना, राजको त्याग दीच्छा धरी है जिना। दान गोछीरको नन्दसेनें दयो, मैं जजौं जासु के पंच अचरज भयो।।
ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-एकादश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
पौषकी श्याम दजी हने घातिया, केवलज्ञान-साम्राज्य-लक्ष्मी लिया। धर्मचक्री भये सेव शक्री करें, मैं जजों चर्न ज्यों कर्म वक्री टरें।
ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-द्वितीयायां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।40
फाल्गुनी सेत पांचै अघाती हते, सिद्ध आले बसै जाय सम्मेदतें। इन्द्रनागेन्द्र कीन्हीं क्रिया आयके, मैं जजों सो मही ध्यायके गायके।।
ऊँ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला-पंचम्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
जयमाला (घत्तानंद छन्द) तुअ नमित सुरेशा, नर नागेशा, रजत नगेशा भगति भरा। भवभयहरनेशा, सुखभरनेशा, जै जै जै शिव-रमनि-वरा।1।
पद्धरि छन्द जय शुद्ध-चिदातम देव एव, निरदोष सुगुन यह सहज टेव। जय भ्रमतम-भंजन-मारतंड, भवि भवदधि-तारन को तरंड।2। जय-गरभ-जनम-मंडित जिनेश, जय छायक-समकित बुद्धभेस। चौथे किय सातों प्रकृतिछीन, चै-अनंतानु मिथ्यात-तीन।3। सातंय किय तीनों आयु नास, फिर नवें अंश नवमें विलास। तिन-माहिं प्रकृति-छत्तीस चूर, या भाँति कियो तुम ज्ञानपूर।4।
पहिले महँ सोलह कहँ प्रजाल, निद्रानिद्रा प्रचला प्रचला। हनि थानगृद्धि को सकल-कुब्ब, नर-तिर्यग्गति-गत्यानुपुब्ब।5।
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