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अगर तगर कृष्णागर चंदन चूरि सुगंध बनाई । अष्टकरम जारनको तुमढिग, खेवत हौं निजराई।। राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा । यातैं शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा ।। 7 । ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल लौंग बदाम छुहारा, एला केला लाई । मोक्ष-महाफल-दाय जानिके, पूजैं मन हरखाई।। राग-दोष -मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा । यातैं शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा ।। 8 ॥
ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजौं भगति बढ़ाई। शिवपदराज हेत हे श्रीधर, शरन गहो मैं आई || राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा । यातैं शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा || 9॥
ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपद-प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (लक्ष्मीधरा छन्द)
चैत की शुद्ध एकैं भली राजई, गर्भकल्यान कल्यान को छाजई। कुंभराजा प्रजापति माता तने, देव देवी जजे शीश नाये घने ।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ल प्रतिपदि गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
मार्गशीर्षे सुदी-ग्यारसी राजई, जन्मकल्यानको द्यौस सो छाई । इन्द्र नागेंद्र पूजें गिरिंदें जिन्हें, मैं जजौं ध्यायके शीश नावैं तिन्हें ।। ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला - एकादश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 21
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