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भरी अक्षत थारी अक्षनहारी तुम पद धारी सों अर्ची। अक्षय पदधारी भव-भव तारी अति सुखकारी सों पिरचों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।31
मदमदन विभंजन भवभयभंजन शिववधु-रंजन विश्वयते। शुभ कमल चढ़ाऊं कमला पाऊं अमला ध्याऊं जगदिदते।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
सब मोदक मोदन रसना मोहन कर्म विमोचन सद्य करो।
नैवेद्य चढाऊं पूज रचाऊं गुणगण गाऊं पूजे करों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मिथ्यान्ध निवारा अति उजियारा दीपक धारा पूज करों।
करु तुमपद आरति नाशे आरति भासे भारति ज्ञानधरों। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिनं।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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