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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - नंदन कवि)
(वसंततिलका) हे देव! पूज्य वृषभेश यहां पधारो, आह्वाननं मैं करत तिष्ठ सुतिष्ठ तारो। कीनो पवित्र वृषको उपदेश सारी,
पूजों सदा तव पदाब्ज भवाब्धि तारो।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभजिनेन्द्र! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीवृषभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(त्रिभंगी) अघ भेदन दच्छ, शशि सम स्वच्छ तर्पित अच्छं, नीर भरों।
तसु धारा धारों, तृषा निवारों, कर्म विदारों पूज करों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
अघ धर्म निवारण शीतल कारण गंधसे पूजन, नित्य करों। जय धर्म उधारण हे भवतावरण करुणाकारण अर्ज करों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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