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श्री वासुपूज्य जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
जय श्री वासुपूज्य तीर्थंकर सुर-नर-मुनि पूजित जिनदेव। ध्रुव-स्वभाव निज का आवलम्बन लेकर सिद्ध हुए स्वयमेव।। घाति-अघाति कर्म सब नाशे तीर्थंकर द्वादशम स्वदेव।
पूजन करता हूँ अनादि की मेटो प्रभु मिथ्यात्व-कुटेव।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
जल से तन बार-बार धोया पर शुचिता कभी नहीं आई। इस हाड़-मास-मय चर्म-देह का जन्म-मरण अति दुखदाई।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय त्रिविधताप-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
गुण शीतलता पाने को मैं चन्दनं चर्चित करता आया। भव-चक्र एक भी घटा नहीं सन्ताप न कुछ कम हो पाया।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
मक्ता-सम उज्ज्वल तन्दल से नित देह पष्ट करता आया। तन की जर्जरता रुकी नहीं भव कष्ट व्यर्थ भरता आया।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
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