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पुष्पों की सुरभि सुहाई प्रभु पर निज की सुरभि नहीं भाई । कंदर्प-दर्प की चिर-पीड़ा अब तक न शमन प्रभो हो पाई ।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाण -विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
षट्-रस मय विविध-विविध व्यंजन जी भर-भर कर मैंने खाये । भव-भूख तृप्त न हो पाई दुःख क्षुधा-रोग के नित पाये।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
दीपक नित ही प्रज्ज्वलित किये अंतर - तम अब तक मिटा नहीं। मोहान्धकार भी गया नहीं अज्ञान तिमिर भी हटा नहीं || त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो || ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 6।
शुभ-अशुभ कर्म बन्धन भाया संवर तत्त्व कभी न मिला। निर्जरा कर्म कैसे हो जब दुखमय आस्रव का द्वार खुला।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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