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पंच महाव्रत धारण कर प्रभु पर-विभाव का हरण किया।।
पुरी अरिष्ट पुनर्वसु नृप ने विधिपूर्वक अहार दिया। प्रभु कर में पय-धारा दे भव-सिन्धु सेतु निर्माण किया।। तीन वर्ष छद्मस्थ मौन रह आत्म-ध्यान में लीन हुए। चार घातिया का विनाश कर केवलज्ञान प्रवीण हुए।।
ज्ञानावरण-दर्शनावरणी-अन्तराय अरु मोह-रहित। दोष अठारह रहित हुए तुम छयालीस गुण से मण्डित।। क्षुधा, तृषा, रति, खेद, स्वेद, अरु जन्म-जरा-चिन्ता-विस्मय। राग, द्वेष, मद, मोह, रोग, निद्रा, विषाद अरु मरण न भय।।
शुद्ध-बुद्ध अरहत-अवस्था पाई तुम सर्वज्ञ हुए। देव अनन्त-चतुष्टय प्रगटा निज में निज-मर्मज्ञ हुए।। इक्यासी गणधर थे प्रभु के प्रमुख कुन्थ ज्ञानी गणधर। मुख्य आर्यिका श्रेष्ठ धारिणी श्रोता थे नृप सीमंधर।। तव दर्शन करके हे स्वामी आज मुझे निज भान हुआ। सिद्ध-समान सदा पद मेरा अनुपम निर्मल ज्ञान हुआ।।
भक्ति-भाव से पूजा करके यही कामना करता हूँ। राग-द्वेष परणति मिट जायें यही भावना करता हूँ।। निर्विकल्प-आनन्द प्राप्ति की आज हृदय में लगी लगन। सम्यक् पूजन-फल पाने को तुम चरणों में हुआ मगन।। निज-चैतन्य-सिंह अब जागे मोह-कर्म पर जय पाऊँ। निज-स्वरूप अवलम्बन द्वारा शाश्वत-शीतलता पाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय महायं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष-शोभित चरण शीतलजिन उर-धार। मन-वचन-तन जो पूजते वे होते भव-पार।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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