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फिर तुम त्रिपृष्ठ नारायण बन हो गये अर्धचक्री प्रधान। फिर भी परिणाम नहीं सुधरे भव-भ्रमण किया तुमने अजान।।
फिर देव नरक तिर्यंच मनुज चारों गतियो में भरमाये। पर्याय सिंह की पुनः मिली पाँचों समवाय निकट आये।। अतिंजय और अमितगुण चारण मुनि नभ से भू पर आये।
उपदेश मिला उनका तुमको नयनों में आंसू भर आये। सम्यक्त्व हो गया प्राप्त तुम्हें, मिथ्यात्व गया, व्रत ग्रहण किया।
फिर देव हुए तुम सिंहकेतु सौधर्म स्वर्ग में रमण किया। फिर कनकोज्ज्वल विद्याधर हो मुनिव्रत से लांतव स्वर्ग मिला।। फिर हुए अयोध्या के राजा हरिषेण साधु पद हृदय खिला। फिर महाशक्र सरलोक मिला चय कर चक्री प्रियमित्र हुए। फिर मुनि पद धारण करके प्रभु तुम सहस्रार में देव हुए।। फिर हुए नन्द राजा मुनि बन तीर्थंकर नाम प्रकृति बांधी।
पुष्पोत्तर में हो अच्युतेन्द्र भावना आत्मा की साधी।। तुम स्वर्गयान पुष्पोत्तर तज माँ त्रिशला के उर में आये। छह-मास पूर्व से जन्म-दिवस तक रत्न इन्द्र ने बरसाये।।
वैशाली के कुण्डलपुर में हे स्वामी! तुमने जन्म लिया। सुरपति ने हर्षित सुमेरु गिरि पर क्षीरोदधि से अभिषेक किया।।
शुभ नाम तुम्हारा वर्द्धमान रख प्रमुदित हुआ इन्द्र भारी। बालकपन में क्रीड़ा करते तम मति-श्रुति-अवधि-ज्ञानाधारी।। संजय और विजय महामुनियों को दर्शन का विचार आया। शिशु वर्द्धमान के दर्शन से शंका का समाधान पाया।। मुनिवर ने सन्मति नाम रखा वे नमस्कार कर चले गये। तुम आठ वर्ष की अल्पायु में ही अणुव्रत में ढलते चले गये।।
संगम नामक एक देव परीक्षा हेतु नाग बनकर आया। तुमने निशंक उसके फण पर चढ़ नृत्य किया वह हर्षाया।। तत्क्षण हो प्रकट झुका मस्तक बोला स्वामी शत-शत वन्दन। अतिवीर, वीर, हे महावीर, अपराध क्षमा कर दो भगवन्।। गजराज एक ने पागल हो आतंकित सबको कर डाला। निर्भय उस पर आरुढ़ हुए पल भर में शान्त बना डाला।।
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