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क्या-क्या बाह्य निमित्त मिले हैं कर्म-उदय के कारण। जिनका क्षणिक चिन्तवन करना यही कर्म-मल हारण।। किन्तु विवेक-बुद्धि की जागृत-ज्योति जागे उर मेरे।
अक्षत से वसु अक्षत-पद की याद बसे उर मेरे।। ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।3।
किसके सुख पर तू मद करता, कर्म उदयवश पाय। देख फूल की दशा फूल कर कुम्हलाता बन माय।। ये सुत नारि काम भोगादिक करें स्व सुख की हान।
फूल भेंट कर तुम पदाब्ज पर करें स्वपद का ध्यान।। ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
विषय की इच्छा सदा जलती अहर्निश हृदय में। करें ज्ञानी उसे तप से शान्त हो प्रति समय में।।
अज्ञ जन जल मरें उसमें बिना तेरी शरण वे।
सोच यह आगे प्रभो तव करूँ चरुवर भेंट ये।। ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
है विवेक जहाँ वहाँ अज्ञान का क्या काम। जहाँ दीप उजास को वहाँ अन्धकार का क्या काम।।
आप मंगल रूप सुव्रत देव हो जितकाम।
करें सार विचार यह तब दीप आरति धाम।। ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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