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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन - पूजा (केशवरायपाटन ) ( रचयिता - पं0 दीपचन्द )
श्रद्धा-भाजन विश्व के श्री सुव्रतजिन देव । मेरे मन-मन्दिर बसौ शुद्ध चिदानन्द देव । शांताकृति जिनराज की पाप-कर्म-क्षयकार। जो निजमन अंकित करे वह उतरे भवपार ।। हम अनजान संक्लेश के फसें कीच में आज ।
चिन्तै तुमको लब्धि-वश तार तार जिनराज ।
ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक
नीलांजन- गिर-समदेह तथापि निरअंजन।
हैं सुमित्र नृप-सुत आज भी अघ - दल भंजन || यों करें स्तवन हम किन्तु तुम्हें न प्रयोजन || जल-स्तवन करें पद-पंकज में हम अलि बन ।। ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
केवल ज्ञान दिवाकर ने अज्ञान विश्व को नाश किया। हम अशान्त संसारी जनको उपदेशामृत भास दिया। चन्दनादि से दाह हरी हम विषयी बन भ्रम-बुद्धि धरी । आत्मम-शुद्धि के हेतु चिन्तित यह तव पद - पंकज शरण वरी॥
ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ- श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2 ।
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