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जब प्रथम तीर्थंकर ऋषभ की सृष्टि में जय-जय जय हुई | शचि बाल-जिनवर छवि निरखति, मुदित मन हर्षित हुई || सौधर्म प्रभु के जन्म-मंगल का सुयश गाने लगा। आनन्दमय अनुभूति की रस वृष्टि बरसाने लगा।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्त देख नीलांजना का, जागृत हुआ विराग । चले सम्पदा तज श्रमण राज-काज सब त्याग || वैराग्य की आई घड़ी, जिन ऋषभ जब वन को चले। कंठों से जय जयकार गूंजी, साधना दीपक जले || षट् मास बीते वन में तप का प्रबल साम्राज्य था। पशु पक्षियों की भावना में भी विरक्त विभाव था।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तभी ज्ञान दीपक जले धवल हुआ भूलोक । कण-कण में विचरित हुआ दिवा-दिव्य आलोक।। कैवल्य की किरणें जगीं, निर्झर स्वयं झरने लगे। अरिहन्त जिन आराधना सुर-असुर सब करने लगे। वाणी में जन कल्याण का सत्यम्-शिवम् संदेश था। ये सकलसिद्ध परमात्म, न राग था न द्वेष था।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
बढ़े मुक्ति पथ पर चरण गिरि कैलाश सुथान। ऋषभ जिनेश्वर ने जहाँ पाया पद निर्वाण ।। हिम सा प्रखर कैलाश गिरि छू चरण पावन हो गया। जिन आदि का वह सत्य शाश्वत स्वर सनातन हो गया ||
संसार को कर्तव्य पथ का ज्ञान विकसित हो गया। जिन आदि ब्रह्मा आदि शिव साकार जिनवर हो गया ।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णा - चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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