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जो दस दिग्पाल कहे महान, जे दिशा नाम सो नाम जान । जे तिनि के गृह जिनराज धाम, जे रत्नमई प्रतिमाभिराम ॥१८॥
ध्वज तोरण घंटा युक्त सार, मोतिन माला लटके अपार । जे ता मधि वेदी हैं अनूप, तहां राजत हैं जिन राज भूप ॥१९॥
जय मुद्रा शान्ति विराजमान, जा लखि वैराग्य बढ़े महान । जे देवी देव सु आय आय, पूजें तिन पद मन वचन काय। २० ॥ जल मिष्ट सु उज्ज्वल पय समान, चन्दन मलयागिरि को महान । जे अक्षत अनियारे सु लाय, जे पुष्पन की माला बनाय ॥२१॥
चरु मधुर विविध ताजी अपार, दीपक मणिमय उद्योतकार । जे धूप सु कृष्णागरु सुखेय, फल विविध भांति के मिष्ट लेय॥२२ ॥
वर अर्घ अनूपम करत देव, जिनराज चरण आगे चढ़ेव । फिर मुख तें स्तुति करते उचार, हो करुणानिधि संसार तार ॥२३ ॥
मैं दुःख सहे संसार ईश, तुमौं छानी नांही जगीश । जे इह विध मौखिक स्तुति उचार, तिन नशत शीघ्र संसार भार ॥२४॥ इह विधि जो जन पूजन कराय, ऋषि मंडल यन्त्र सु चित्त लाय । जे ऋषि मंडल पूजन करन्त, ते रोग शोक संकट हरन्त ॥२५ ॥
जे राजा-रण-कुल-वृद्धि-हान, जल-दुर्ग सु गज केहरि बखान । जे विपत घोर अरु महि मसान, भय दूर करै यह सकल जान ॥२६॥
जे राज भ्रष्ट ते राज पाय, पद भ्रष्ट थकी पद शुद्ध थाय । धन अर्थी धन पावै महान, या में संशय कुछ नाहिं जान ॥२७॥ ___ भार्यार्थी भार्या लहन्त, सुत अर्थी सुत पावे तुरन्त ।। जे रूपा सोना ताम्र पत्र, लिख तापर यन्त्र महा पवित्र ॥२८॥
ता पूजै भागे सकल रोग, जे पात पित्त ज्वर नाशि शोग। तिन गृह तैं भूत पिशाच जान, ते भाग जाहि संशय न आन ॥२९॥
जे ऋषि मंडल पूजा करन्त, ते सुख पावत कहिं लहै न अन्त । जब ऐसी मैं मन माहिं जान, तब भाव सहित पूजा सुठान ॥३०॥
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