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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
प्रनत-देवलोक तें आये, वामादे-उर जगदाधार। विश्वसेन-सुत नुत-हरिहर हरि-अंक हरित-तन सुखदातार।। जरत नाग-जुग बोधि दियो जिहिं, भुवनेसुरपद परमउदार।
ऐसे पारसको तजि आरस, थापि सुधारस-हेत विचार।1 ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
सुर-दीरधि सों जल-कुम्भ भरों, तुव पादपद्यतर धार करों।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपाशर्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।
हरिगंध कुंकुम कर्पूर घसों, हरि-चिह्न हेरि अरचें सरसों।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
हिम हीर नीर जस मान शुचं, वरपुंज तंदुल तवाग्र मुचं।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
कमलादिपुष्प धनुपुष्प धरी, मदभंजन-हेत ढिग पुंज करी।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
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