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अष्टक (हरिगीता छन्द) क्षीर उदधि समान निर्मल तथा मुनि चित सारसो। भर भुंग मणिमय नीर सुन्दर तृषा तुरति निवारसो ॥ जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा । ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ (नोट-प्रत्येक द्रव्य चढ़ाते हुए स्थापना के मन्त्र को भी पूरा पढ़ा जा सकता है।
यहाँ केवल संक्षिप्त मन्त्र लिखा है।)
मलय चन्दन लाय सुन्दर गंध सों अलि झंकरे ।
सो लेहु भविजन कुंभ भरिके तत्त दाह सबै हरे ॥ जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥
इन्दु किरण समान सुन्दर ज्योति मुक्ता की हरें। हाटक रकेबी धारि भविजन अखय पद प्राप्ती करें। जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा॥३॥
पाटल गुलाब जुही चमेली मालती बेला घने। जिस सुरभितें कलहंस नाचत फूल गुंथि माला बनें । जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा॥४॥
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