________________
यह गंध चूरि दशांग सुन्दर, धूर्मध्वजमें खेयहों। वसुकर्म-भर्म जराय तुम ढिग, निज-सुधातम वेयहों।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रंतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
रसथक्व पक्व सुभक्व चक्व, सुहावने मृदु पावने। फलसार-वृन्द अमंद ऐसो, ल्याय पूज रचावने।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरों। अरु धूप फल जुत अरघ करि, कर-जोर-जुग विनति करों।।
जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (छंद सुन्दरी तथा द्रुतविलंबित)
असित कार्तिक एकम भावनो, गरभको दिन सो गिन पावनो। किय सची तित चर्चन चावसों, हम जजें इत आनंद भावसों।।
ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-प्रतिपदायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
77