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उत्तम अक्षत जिनराज, पुंज धरे सोहै। सब जीते अक्ष-समाज, तुम सम अरु को है।
नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो
अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामिति स्वाहा।।
तुम काम विनाशक देव, ध्याऊँ फूलन सौं । लहुँ शील-लच्छमी एव, छूटों सूलन सौं॥ नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यः
कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
नेवज इन्द्रिय बलकार, सो तुमने चूरा ।
चरु तुम ढिग सोहै सार, अचरज है पूरा ॥ नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यः
क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।।
दीपक की ज्योति-प्रकाश, तुम तन माँहिं लसै। टूटै करमन की राश, ज्ञान-कणी दरसै ॥
नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो
मोहान्धकारविनाशाय दीपं निर्वपामिति स्वाहा।।
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