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भरतक्षेत्र के षट्-खण्डों को जीत कर हुए चक्रवर्ती। नवनिधि चौदह रत्न प्राप्त कर शासक हुए न्यायवर्ती।
इस जग में उत्कृष्ट भोग भोगते बहुत जीवन बीता। एक दिवस नभ में घन का परिवर्तन लख निज मन रीता।। यह संसार असार जानकर तप-धारण का किया विचार। लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने किया हर्ष से जय-जयकार।।
वन में जाकर दीक्षा धारी पंच मुष्टि कचलोंच किया। चक्रवर्ती की अतुल-सम्पदा क्षण में त्याग विराग लिया।।
मन्दिरपुर के नृप सुमित्र ने भक्तिपूर्वक दान दिया। प्रभु कर में पय-धारा दे भव-सिन्धु-सेतु निर्माण किया।।
उच्च-तपस्या से तुमने कर्मों की कर निर्जरा महान। सोलह वर्ष मौन तप करके ध्याया शुद्धातम का ध्यान।।
श्रेणी-क्षपक चढ़े स्वामी केवलज्ञानी सर्वज्ञ हुए। दिव्य-ध्वनि से जीवों को उपदेश दिया विश्वज्ञ हुए।।
गणधर थे छत्तीस आपके चक्रायुद्ध पहले गणधर। मुख्य आर्यिका हरिषेणा थी श्रोता पशु, नर, सुर, मुनिवर।। कर विहार जग में जगती के जीवों का कल्याण किया।
उपादेय है शुद्ध-आत्मा यह सन्देश महान दिया।। पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ आस्रव जग में भ्रमण कराते हैं।
जो संवर धारण करते हैं परम मोक्ष-पद पाते हैं।। सात तत्त्व की श्रद्धा करके जो भी समकित धरते हैं। रत्नत्रय का अवलम्बन ले मुक्ति-वधु को वरते हैं।। सम्मेदाचल के पावन पर्वत पर आप हुए आसीन। कूट-कुन्दप्रभ से अघातिया कर्मों से भी हुए विहीन।। महामोक्ष-निर्वाण प्राप्त कर गुण-अनन्त से युक्त हुए। शुद्ध-बुद्ध अविरुद्ध सिद्ध-पद पाया भव से मुक्त हुए।। हे प्रभु शान्तिनाथ मंगलमय मुझको भी ऐसा वर दो। शुद्ध-आत्मा की प्रतीति मेरे उर में जागृत कर दो।।
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