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पंच-वर्ण-मय कुसुम कल्पतरु के मन भावै। गन्ध-लुब्ध मधु भ्रमै समर के बाण नसावै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन।
जनँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4
उज्ज्वल ललित पवित्र कनक-भाजन चरु धारै।
मधुर घृत्त-रस-युक्त क्षुधा लखनै निरवारै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन।
जनँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मणिमय निर्मित दीप-कान्ति तम-औघ विदारै। विकसत द्वै वरबोध स्वपर लखि गुण विस्तारै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डनाजजूं चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन।
ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
अगर कृष्ण करपूर सुरभि चन्दन के दाहन।
धूप निर्जरा करै हरै अघ द्वै शिव गाहन।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन।
जनँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
सुर तरु के फल भूरि कनक-भाजन भरि पावन।
श्रीफल मिष्ट बदाम चक्षु-नासा-मन-भावन।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दख-खण्डन।
जजूं चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
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