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श्री धर्मनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द जी)
(रोला छन्द) सार दरब-षट् कहे पदारथ-नव शुभ भाखे। सप्त-तत्त्व वरणये काय पंचासति आखे।। लोक-तीन-थिति कही धर्म जिनवर वृषदायक। आह्वानन विधि करूँ प्रणमि त्रिविधा शिवनायक।।
ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
___ ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
मद अवलिप्तकपोल छन्द अति-निर्मल शुचि-नीर तीर्थ-उद्भव भुंग धारै। शीतल मिश्रित-गन्ध-सुरभि” मधु झंकारै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डनाजघु चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन।
ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
कृष्णागर कशमीर नीर घनसार सुचन्दन। षट्पद-औघ भ्रमन्त सुरभितें दाह-निकन्दन।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन।
जगँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
सोम-किरण-सम श्वेत शुद्ध डण्डीर अखण्डित। अति-निर्मल चखि-हरे, सालि-शुभ सौरभ-मण्डित।।
जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दख-खण्डन।
जनँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।31
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