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जगत्त जथा जल-बुदबुद येव, सदा जिय एक लहै फलमेव। अनेक प्रकार धरी यह देह, भ्रमें भवकानन आन न नेह।6। अपावन सात कुधात भरीय, चिदातम शुद्ध सुभाव धरीय। धरे इनसों जब नेह तबेव, सुआवत कर्म तबै वसुभेव।7। जबै तन-भोग-जगत्त-उदास, धरें तब संवर निर्जर आस। करे जब कर्मकलंक विनाश, लहे तब मोक्ष महासुखराशा8। तथा यह लोक नराकृत नित्त, विलोकियते षट्-द्रव्यविचित्त। सु आतमजानन बोधिविहीन, धरे किन तत्त्व प्रतीत प्रवीन।9।
जिनागमज्ञान रु संजम भाव, सबै निजज्ञान विना विरसाव। सुदुर्लभ द्रव्य सुक्षेत्र सुकाल, सुभाव सबे जिहतें शिवहाल।10। लयो सब जोग सुपुन्य-वशाय, कहो किमि दीजिय ताहि गँवाय। विचारत यों लौकान्तिक आय, नमें पदपंकज पुष्प चढ़ाय।11। कह्यो प्रभु धन्य कियो सुविचार, प्रबोधि सु येम कियो जु विहार। तबै सौधर्मतनों हरि आय, रच्यो शिविका चढि आय जिनाय।12। ____धरे तप पाय सु केवलबोध, दियो उपदेश सुभव्य संबोध। लियो फिर मोक्ष महासुख-राश, नमै नित भक्त सोई सुखआश।13।
धत्तानंद नित वासव-वंदत, पापनिकंदत, वासुपूज्य व्रत ब्रह्मपती। भवसंकल-खंडित, आनंद-मंडित, जै जै जै जैवंत जती।14। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा छंद वासुपूज्य पद सार, जजों दरबविधि भावसों। सो पावै सुखसार, भुक्ति मुक्तको जो परम।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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